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सुनहरे पल

हमारा स्कूल घर से बहुत दूर था । हमें काफी पैदल चलना पड़ता था और दो बार ऑटो भी बदलना पड़ता था । हमें आने जाने के लिए बड़े भैया से पैसे मिलते थे और उसका खर्च लिखकर अगले दिन भैया को दिखाना होता था । उसी के अनुरूप हमें उस दिन के पैसे मिलते थे । यह घर का कड़ा अनुशासन था । खर्च करने पर पाबंदी नहीं थी परंतु उसको सत्यता से बताना जरूरी था इसलिए हमारे पास सीमित ही पैसे होते थे।

उस दिन घर से निकलते समय पापा ने मुझे 2 या ₹4 दिए ठीक से याद नहीं । मैंने बहुत मना किया कि मेरे पास पैसे हैं । उन्होंने कहा बेटा अपने पास कुछ अतिरिक्त पैसे रखा करो । अपने लिए नहीं तो हो सकता है किसी दूसरे के काम आ जाए । उस दिन स्कूल से बाहर निकली तो दो बहने भी बाहर खड़ी थी । वह मुझे रोज ही मिला करती थी क्योंकि वह भी चारबाग तक ऑटो से ही आती थी लेकिन उस दिन बड़ी बहन बहुत परेशान सी दिख रही थी। मैंने उससे पूछ ही लिया क्या बात है । उसने कहा- दीदी मेरा बटवा खो गया है । अब हमारे पास घर जाने के लिए पैसे नहीं है। मैंने कहा चलो हम सब चारबाग तक साथ ही चलते हैं । मेरे पास इतने पैसे हैं । वे दोनों चारबाग उतर गए लेकिन मुझे आगे जाना था सिंगार नगर । मैं जिस ऑटो में चढ़ी उसमें पापा भी बैठे थे। वे आलमबाग उतर गए और उतरते समय बोले- बेटा पैसे और चाहिए। मैंने मुस्कुराते हुए कहा - नहीं पापा आपने सवेरे तो दिए थे । सिंगार नगर उतरकर हमें पैदल घर जाना पड़ता था। चलते चलते मैं सोच रही थी कि जो पापा ने आज समझाया वही मेरे जीवन मैं आज व्यवहारिक रूप से भी हो गया । आज मैंने जीवन में एक नया दृष्टिकोण भी सीखा।

अगर आपके पास कुछ ज्यादा है तो उससे दूसरों की मदद करने में नहीं संकुचाना चाहिए । सच मानिए ऐसा करना अंदर से बहुत खुशी देता है।


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