अपने जीवन के सुनहरे पलों को सबके साथ बांटना इतना सहज नहीं है । यह वह पल हैं जो मुझे कहीं ना कहीं अंदर तक छू गए । शायद ये अनुशासित जीवन मुझे और आपको कुछ बल दे जाए।
हम बहुत छोटे होंगे सात -आठ साल के । आज घरों में जैसे बच्चों के लिए चॉकलेट टॉफी आती है वैसी व्यवस्था तब नहीं थी । हमारे पापा जब भी महीने में एक बार कानपुर जाते तो ढेर सारी टॉफी लाते थे । उस दिन हम बच्चों के मन में ऐसी खुशी का संचार रहता कि आज पापा कौन सी टॉफियां लाएंगे । टॉफियां तो पापा के साथ रात 8:00 बजे तक आ जाती थी पर हमारे परिवार में नियम था जो भी चीज आती है या तो बाबाजी बाटते या दादी । तो उस समय तक तो बाबाजी सो जाते थे और वह टॉफिया बाबाजी के स्टडी रूम में रख दी जाती थी ।बाबाजी अगले दिन सबको बांटते । परिवार के हर सदस्य को बराबर बराबर टॉफ़ी बाटी जाती पर हमें तो स्कूल से लौटने पर ही मिलती थी।
यह पल दो बातों से मेरे हृदय को छू गया एक तो सयंम , हम छोटे बच्चे का अपनी इच्छा पर संयम और दूसरा समानता पूरे परिवार को एक समान चीज मिलना।

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