आज जो कहानी लिखने जा रही हूं वह कहानी मैंने किसी अख़बार में पड़ी थी।
मोहन काका लकड़ी के फर्नीचर बहुत अच्छे बनाते थे वह नित लकड़ी को नया आकार देते थे । वह अपनी दुनिया में मस्त थे परंतु वह अपने बेटे के गुस्से को लेकर बहुत परेशान रहते थे कि वह लकड़ी को नया आकार तो दे देते हैं पर अपने बेटे के जीवन को कैसे आकार दें।
एक दिन उन्होंने अपने बेटे को बुलाया और कहा - बेटा जब भी तुम्हें गुस्सा आए तो तुम आंगन में लगे पेड़ पर एक कील गाड़ देना। ऐसा तुम एक महीने तक करना। उसे पिता की बात पर गुस्सा तो आया पर उसने बात मान ली । अब जब भी दिन में जितनी बार गुस्सा आता उसमें कील गाड़ देता।चार-पांच दिन बाद उसे खुद पर शर्म आने लगी । कितना गुस्सा करता हूँ । धीरे-धीरे कीलें कम होने लगी क्योंकि उसे अपनी गलती का एहसास होने लगा था लेकिन मन में शांति आने लगी थी। एक महीने बाद मोहन काका ने उससे सारी कीलें पेड़ में से निकलवाई तो उसने देखा उसमें छेद हो गए हैं । तब काका ने उसे समझाया जितनी बार तुम गुस्सा करते हो उतनी बार किसी का ह्रदय दुखाते हो और खुद भी दुखी होते हो। उसे अपने पिता की बात समझ में आई और वह निरंतर प्रयास में लगा रहा।
सत्य है क्रोध दूसरे से ज्यादा खुद को जला जाता है।
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